पिछले दिनों मैं अपने एक दोस्त से लगभग 3 साल बाद मिला। 5 मिनट तक घर-परिवार और नौकरी की बाते हुई और फिर 5 मिनट बाद हमारा राष्ट्रीय प्रश्न दखल देने लगा, जब उसने पूछा "और बता क्या चल रहा है? " मैंने कहा " बस कुछ नहीं, टाइमपास। " फिर अपने फोन में झांकता हुआ बोला "हम्म्म्म, और क्या चल रहा है" मैंने फिर कहा "जून चल रहा है, गर्म हवा चल रही है और तो और हमशक्ल भी चल रही है " लेकिन वो तो हैंग हो चूका था "हम्म्म और ?" मैं तिलमिलाया " और साले तेरा दिमाग चल चूका है, भाग यहाँ से , 3 साल बाद मिला, अब 30 साल तक नजर मत आइयो। "
दरअसल मोबाइल क्रांति के बाद हम अपने काल्पनिक जगत में इतना खो चुके हैं कि असली दुनिया के लोगो से बात करने के लिए हमारे पास कुछ है ही नहीं। कुछ लोगों को तो ये भी तब पता चलता है कि वो किसके घर रह रहे हैं, जब WhatsApp और फेसबुक डाउन हो जाते हैं। एक दोस्त की हालत तो इतनी ख़राब है कि अगर 2 मिनट के लिए नेटवर्क चला जाये तो ऑक्सीजन लगानी पड़ती है।
हालत इतने खराब हो चुके हैं कि दो दोस्तों की एक ही गर्लफ्रेंड हो तो चलेगा लेकिन चार्जर अपना-अपना होना चाहिए। युवा पीढ़ी इतना पढ़ लिखकर भी अंगूठा छाप हो चुकी है और आने वाली पीढ़ियों में हमारे बच्चे भी 6 अंगूठे वाले और बिना जुबान के पैदा होंगे। आधुनिक इतिहासकार तो ये भी कहते हैं द्रोणाचार्य ने भी एकलव्य का अंगूठा इस डर से मांग लिया था कि कहीं उनका चेला आगे चलकर WhatsApp एडिक्ट ना हो जाये।
अब बिल्कुल समझ नहीं आता कि फ़ोन में झांके बिना सामने खड़े आदमी से कैसे बात करें। दिल करता है कि या तो ये चला जाये या सामने खड़े होकर भी वीडियो कॉल ही कर ले, बस फ़ोन से नजर ना हटे हमारी किसी भी हालत में। ऐसा नहीं है कि हम अपने आप को इस से बाहर निकालने की कोशिश नहीं करते, करते हैं, लेकिन फिर ऐसा महसूस होता है कि जैसे हम अपाहिज हो गए हैं और जान बचाने के लिए जल्दी से वापिस वहीँ लौट जाना चाहिए।
और सबसे ख़ास बात ये कि हम सब ऐसे ही हो चुके हैं लेकिन फिर भी इस तरह के ब्लॉग लिखकर ये जताते हैं कि हम सोशल हैं और इसका शिकार नहीं है।